इज़रायल में 330 ई.पू से हैं यहूदी

 


सन् 330 ई.पू. में सिकन्दर ने ईरान को जीतकर वहाँ के हख़ामनी साम्राज्य का अन्त कर दिया। सन् 320 ई.पू. में सिकन्दर के सेनापति तोलेमी प्रथम ने इज़रायल और यहूदा पर आक्रमण कर उसपर अपना अधिकर कर लिया। बाद में सन् 198 ई॰पू॰ में एक दूसरे यूनानी परिवार सेल्यूकस राजवंश का अंतिओकस चतुर्थ यहूदियों के देश का अधिराज बना। जेरूसलम के बलवे से रुष्ट होकर अन्तिओकस ने उसके यहूदी मन्दिर को लूट लिया और हजारों यहूदियों का वध करवा दिया, शहर की चहारदीवारी को गिराकर जमीन से मिला दिया और शहर यूनानी सेना के सपुर्द कर दिया।


अंतिओकस ने यहूदी धर्म का पालन करना इज़रायल और यहूदा दोनों जगह कानूनी अपराध घोषित कर दिया। यहूदी मन्दिरों में यूनानी मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं और तौरेत की जो भी प्रतियाँ मिलीं आग के सपुर्द कर दी गईं।


यह स्थिति सन् 142 ई॰पू॰ तक चलती रही। सन् 142 ई॰पू॰ में एक यहूदी सेनापति साइमन ने यूनानियों को हराकर राज्य से बाहर निकाल दिया और यहूदा तथा इज़रायल की राजनीतिक स्वाधीनता की घोषण कर दी। यहूदियों की यह स्वाधीनता 141 ई॰पू॰ से 63 ई॰पू॰ तक बराबर बनी रही।


यह वह समय था जब भारत में बौद्ध भिक्षु और भारतीय महात्मा अपने धर्म का प्रचार करते हुए पश्चिमी एशिया के देशों में फैल गए। इन भारतीय प्रचारकों ने यहूदी धर्म को भी प्रभवित किया। इसी प्रभाव के परिणामस्वरूप यहूदियों के अन्दर एक नए "एस्सेनी" नामक सम्प्रदाय की स्थापना हुई। हर एस्सेनी ब्राह्म मुहूर्त में उठता था और सूर्योदय से पहले प्रात: क्रिया, स्नान, ध्यान, उपासना आदि से निवृत हो जाता था। सुबह के स्नान के अतिरिक्त दोनों समय भोजन से पहले स्नान करना हर एस्सेनी के लिए आवश्यक था। उनका सबसे मुख्य सिद्धान्त था-अहिंसा। हर एस्सेनी हर तरह की पशुबलि, मांसभक्षण या मदिरापान के विरुद्ध थे। हर एस्सेनी को दीक्षा के समय प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी :


"मैं यह्वे अर्थात् परमात्मा का भक्त रहूँगा। मैं मनुष्य मात्र के साथ सदा न्याय का व्यवहार करूँगा। मैं कभी किसी की हिंसा न करूँगा और न किसी को हानि पहुँचाऊँगा। मनुष्य मात्र के साथ मैं अपने वचनों का पालन करूँगा। मैं सदा सत्य से प्रेम करूँगा।" आदि।

उसी समय के निकट हिन्दू दर्शन के प्रभाव से इज़रायल में एक और विचारशैली ने जन्म लिया जिसे क़ब्बालह कहते हैं। क़ब्बालह के थोड़े से सिद्धान्त ये हैं-


"ईश्वर अनादि, अनन्त, अपरिमित, अचिन्त्य, अव्यक्त और अनिर्वचनीय है। वह अस्तित्व और चेतना से भी परे है। उस अव्यक्त से किसी प्रकार व्यक्त की उत्पत्ति हुई और अचिन्त्य से चिन्त्य की। मनुष्य परमेश्वर के केवल इस दूसरे रूप का ही मनन कर सकता है। इसी से सृष्टि सम्भव हुई।"

क़ब्बालह की पुस्तकों में योग की विविध श्रेणियों, शरीर के भीतर के चक्रों और अभ्यास के रहस्यों का वर्णन है।

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